आखिर कब तक : DR Satya Prakash

आखिर कब तक : DR Satya Prakash 
इस देश में एक चुनी हुई सरकार पूरे देश के लिए होती है या किसी खास तबके के मसले में सरकार के हाथ तंग रहते हैं. 

मैं यह बात इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि धीरे-धीरे इस बात का अंदाजा लग रहा है कि "जितने भी समाज को सहजता से चलाने और झगडे निपटाने के कानून" भारत सरकार के द्वारा बनाए गए हैं उन सबको तोड़ने के लिए एक "समानांतर नियमावली" एक खास तबके के पास न्यायिक रूप से उपलब्ध कराया गया है.
 
मतलब जितने भी साधारण जीवन के प्रसंग होंगे उनमें सरकारी हस्तक्षेप एक सीमा तक ही स्वीकार हैं, उस खास तबके को, जबकि शेष जनमानस के लिए सरकारी कानून की पूरी बाध्यता है. 

जर जोरु जमीन तीनों ही मुद्दे पर भारत की सरकारों के कानून का कोई नियंत्रण न हो, इसका प्रबंध खास तबके ने, कानूनी रूप से कर रखा है; जो खतरनाक है, क्योंकि कानून के दायरे में बंधे जनसमुदाय के सामने एक स्वतंत्र समुदाय एक ही भूमि पर खड़ा किया जा रहा है. 

यदि भारतीय क़ानून की प्रासंगिकता इतनी कमजोर है तो इसको क्यों ही बाकी समाज स्वीकार करें, भारत के अन्य समाज के पास भी पुराने ढर्रे वाले सामाजिक कानून पहले से उपलब्ध रहे हैं लेकिन दूसरे पक्ष ने हर चीज को पीछे छोड़ कर सहज ही नए कानूनों को अपनाया. पढ़ने लिखने नौकरी शादी झगडे सबमें कानून मान्य है 
जबकि खास तबके ने अपनी पढ़ाई लिखाई नौकरी शादी जमीन सबमें पुरातनवादी मान्यता को बनाए रखा है. 

अब इस बात को सभी जान गए हैं कि जिस तरह से अपने लिए अलग नियम की मांग तबका विशेष कर रहा है वह सिद्ध कर रहा है कि वह भारतीय सरकार को कभी भी अपने हित में मानता ही नहीं.  वह इस भूमि पर "एक नाराज फूpha" बन कर मजे लेना जारी रखे है. 

सामान्य मनुष्य के लिए जीने और काम करने के लिए एक भूमि पर एक कानून होना चाहिए न कि व्यक्ति व्यक्ति और समाज समाज के लिए अलग अलग कानून अन्यथा कभी भी भारत एक हो ही नहीं पाएगा. 

मान्यताओं की रक्षा के लिए यदि किसी खास खास समुदाय को protect किया जाता रहेगा तब दूसरे तबके को भी अपनी पुरातनपंथी मान्यताओं की ओर झुकाव बनाते हुए देखना ही ठीक होगा अन्यथा एक अति "समायोजित समाज" और एक "कट्टर समाज" के बीच सदा ही युद्ध होगा और जो जो कट्टर समाज के अन्य देश होंगे वो खास तबकों को प्रोत्साहित कर पूरी भारत भूमि को अस्थिर करते रहेंगे और भारत के तबके विशेष के लोग कभी भी दूसरे देश को गैर नहीं समझेंगे और देश के विरोध में उपयोग में आते रहेगे. 

कुल मिलाकर जब तक एक नियम से चलने और विकास उन्मुख एक समरसता से भरा समाज नहीं तैयार होगा तब तक देश के भीतर विरोध का स्वर कम नहीं होगा और भारत के कानून के प्रति सहज स्वीकार्यता दिखना ही उसकी पहली सीढ़ी होगी. 

- डॉ सत्य प्रकाश
वैज्ञानिक (BHU) वाराणसी 

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