:- डॉक्टर दयाराम विश्वकर्मा
मां ,को सम्मान देने हेतु मातृ दिवस आज अनेक देशों व संस्कृतियों में मनाया जाता है,परंतु एताहसिक पूर्व वृत्त में
मातृ पूजा का रिवाज पुराने ग्रीस से उत्पन्न हुआ है।ग्रीक देवताओं की मां के सम्मान में मातृ दिवस मनाने की परंपरा
शुरू हुई।यह दिवस कई देशों के 08 मार्च को मनाने की प्रथा है,परंतु भारत में यह दिवस मई माह के द्वितीय रविवार को आयोजित किया जाता है।यह संयुक्त राज्य अमेरिका व
कनाडा में भी मनाया जाता है।यूरोप व ब्रिटेन में जहां माह के चौथे रविवार को (मदरिंग संडे) कहा जाता है,इस विशिष्ट रविवार को मातृत्व व माताओं को सम्मानित करने का विधान है।मैक्सिको,ग्वाटेमाला व अलशल्वाडोर में 10 मई को प्रतिवर्ष मातृत्व दिवस मनाया जाता है।
अब दुनियाभर में मई माह के द्वितीय रविवार को मदर्स डे मनाया जाने लगा है।मां के बारे में सोचने, उन्हें सम्मान देने और उनके लिए कुछ करने के लिए यह दिवस मनाया जाता है। मातृ दिवस के उपलक्ष में पहली बार संयुक्त राज्य अमेरिका में 1908 में एना जार्विस,द्वारा अपनी मां रीव्स जार्विस की याद में एक कार्यक्रम का आयोजन किया था,इसके पश्चात अमेरिका में इस तिथि को मान्यता मिली,तत्पश्चात यह धीरे धीरे सभी देशों में फैल गया।
पौराणिक आख्यानों में मां के संदर्भ में कहा गया है कि
नास्ति मातृ समा छाया, नास्ति मातृ समा गति।
नास्ति मातृ समा त्राणम,नास्ति मातृ समा प्रिया।।
यानि माता के समान कोई छाया नही,माता के तुल्य कोई सहारा नहीं,माता के सदृश्य कोई रक्षक नही,तथा माता के समान कोई प्रिय नही।
इसीलिए कहते है कि पुत्र कुपुत्र हो सकता है,किंतु माता कभी कुमाता नही होती।वेदों में मातृ देवो भव,कहा गया है,मां का स्थान देवताओं के समतुल्य माना गया है,एक मां हजार पिताओं से श्रेष्ठ मानी जाती है।यही कारण है की मां का स्थान पिता से ऊंचा माना गया है।नेपोलियन भी कहता था ,Give me good mother I will give you a good nation
महर्षि यश्क के अनुसार माता निर्माण वाली,अर्थात जननी है।केवल जन्म देने,या पालन पोषण करने से ही मां, मां नही होती,बल्कि उसमें स्नेह,ममता,त्याग,करुणा,सहनशीलता जैसे गुण पाए जाते हैं।इसीलिए मां वंदनीय व अभिनंदनीय होती है।वह धरा पर ईश्वर की अनुपम कृति है।मां वह अक्षय कोष है, जिसमें बच्चे अपनी चिंताएं,संकट डालकर सुख ,शांति व आनंद पा सकते है,इसी कारण से एक वेस्टर्न थिंकर ने मां के संदर्भ में कहा है
God couldn't be everywhere,so he made mothers
ब्रह्म वैवर्त पुराण में वेद द्वारा बताई गई सोलह प्रकार की माताओं का जिक्र किया गया है,गर्भ धारण करने वाली,स्तन पान कराने वाली,भोजन देने वाली,गुरु की भार्या,इष्ट देव की पत्नी,सौतेली मां,सौतेली बहन, सगी बड़ी बहन,पुत्र बधू, सास,नानी,दादी,भाभी,मौसी, बुआ व मामी।
आध्यात्मिक ग्रन्थों में छह प्रकार की वैष्णवी माताओं का भी उल्लेख किया गया है,वह है,गंगा,यमुना,गायत्री, गाय,तुलसी व पृथ्वी।वेदों में माँ को अम्बा,अम्बालिका,दुर्गा,देवी,सरस्वती,शक्ति,ज्योति,पृथ्वी आदि नामों से पुकारा गया है।
आध्यात्म में विश्व की आदर्श माताओं में मदालशा,जो अपने पुत्रों को बालकाल में ही विषयों के प्रति ज्ञान देकर ,वैराग्य का उपदेश देकर,आत्म ज्ञान का बोध कराया।
सुनीति ने,अपने बालक ध्रुव को वन में भेजकर भगवत प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त किया। सुमित्रा ने लक्ष्मण को राम के साथ वन में भेजकर भाई के साथ भाई के धर्म का उपदेश देकर आदर्श प्रस्तुत किया।
तैतेरीय उपनिषद में “मातृ देवो भव:”कहा गया है,अर्थात् माता को देव तुल्य मानकर,उसकी सेवा का कल्याणकारी उपदेश दिया गया है।
महर्षि सुमंत ने कहा है कि मां की सेवा से आयु,यश,बल,कीर्ति,धन,सुख व स्वर्ग की प्राप्ति होती है।
मां के संदर्भ में यह भी कहा जाता है
राजपत्नी, गुरोःपत्नी, भात्रपत्नी तथैव च।
पत्नी माता,स्वमाता च पंचैता मातरःस्मृता।।
अर्थात राजा की पत्नी,गुरु की पत्नी,भाई की पत्नी,पत्नी की माता ,अपनी माता ये सभी मां मानी जाती हैं।
मां को सृजन,सम्मान व शक्ति का प्रतीक भी माना जाता है।मां शब्द में ,ममता,मृदुलता,मातृत्व व मानवता का समावेश
होता है।मां में ,कोमलता,सहनशीलता व क्षमाशीलता का गुण भी होता है।
एक उर्दू शायर ने लिखा है,
कभी दर्जी, कभी आया,कभी हाकिम बनी है मां।
नही है उज्र, उसको कोई भी किरदार जीने में।।
एक कवि ने मां के संदर्भ में लिखा है,
अनुपम एक सरोवर है मां,त्याग तपस्या ममता की।
उसका जीवन एक धरोहर परहित सेवा समता की।।
एक और कवि की पंक्तियां यहां उद्धृत करना चाहूंगा
मां के गुणों का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि "
प्रशस्ता धार्मिकी विदुषी माता विद्यते यस्य स मातृमान"
चाणक्य नीति में कौटिल्य स्पष्ट रूप से कहते है कि,"मां
परम देवी होती है।"
महर्षि मनु ने मां का यशोगान इस प्रकार किया है।
दश उपाध्यायों के बराबर एक आचार्य,सौ आचार्यों के बराबर एक पिता,एक हजार पिताओं के बराबर एक मां
का स्थान होता है।
वेदों में मां को,माता, मात, मातृ,अम्मा,अम्मी,जननी,जन्मदात्री,जनयत्री, जन्मदायनी ,
धात्री,प्रसू,जीवनदायनी आदि कहा गया है।माँ सृजन करती हैं इसलिए उसे ब्राह्मणी,माँ पालन करती है उसे वैष्णवी और माँ बच्चों के दुर्गुणों का नाश करती है अतः उसे रुद्राणी भी कहते हैं।
ऋग्वेद में मां की महिमा का यशोगन करते हुए कहा गया है
हे ऊषा के समान प्राणदायनी मां! हमे सन्मार्ग पर चलने के
लिए प्रेरित करें,तुम हमे नियम परायण बनाओ।
वही सामवेद में कहा गया है कि, हे पुत्र! तू माता की आज्ञा का पालन कर,अपने दुराचरण से माता को कष्ट न दे।माता को अपने पास रख,मन शुद्ध कर,और आचरण की ज्योति
प्रकाशित कर।
सारांश में माना जा सकता है कि मां इस धरा पर ईश्वर की अनुपम,अद्वितीय,अनमोल कृति है,जिससे संस्कारों का संवहन एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को होता है।
लेखक:पूर्व ज़िला विकास अधिकारी,कई राज्य स्तरीय सम्मानों से विभूषित वरिष्ठ साहित्यकार,ऑल इण्डिया रेडियो वाराणसी के नियमित वार्ताकार,कई पुस्तकों के प्रणयन कर्ता,मोटिवेशनल स्पीकर,शिक्षाविद है,जिनके नाम से शिक्षा संकाय,बीएचयू के शोध छात्रों को बेस्ट पेपर अवार्ड भी दिया जाता है।