शर्मिंदा किसे होना चाहिए : डॉ. सत्य प्रकाश
आज के समय में शर्मिंदगी के कारण लोग अपनी समस्या को सबके सामने रखने में भय खाते हैं। मित्रों, शर्मिंदगी एक ऐसा दुर्गुण है जिससे भयानक रोग पनपता है। लाखों लड़कियों ने अपनी जान इसी शर्मिंदगी के कारण दे दी होगी और कितने ही अच्छे लोगों का जीवन शर्मिंदगी के कारण बर्बाद हो गया होगा।
किसी भी अत्याचार के कारण, जब किसी का जीवन बर्बाद हो जाता है या बर्बाद होने की कगार पर रहता है तब उस व्यक्ति को अपनी पूरी बर्बादी से पहले अपनी शर्मिंदगी को त्याग कर समस्या को सबके सामने रखना चाहिए। ऐसा करने से अत्याचार करने वाला निश्चित रूप से भयभीत होगा और एक दिन ऐसा आएगा कि व्यक्ति की निडरता के कारण उसको कहीं ना कहीं दूसरा मार्ग मिल जाएगा।
ससुराल में अनेकों लड़कियों के ऊपर जब गलत तरीके से दहेज के लिए दबाव दिया जाता है तब वे लड़कियां शर्मिंदगी और भय के कारण समझौता करने लगती हैं, और अपने परिवार जिसमें उनके भाई और माता-पिता होते हैं, उनकी सैकड़ो बुराइयों को सुनने के लिए बाध्य होती हैं। शुरुआत का यह व्यवहार धीरे-धीरे लड़की को एक घुटन में जीने को बाध्य कर देता है, और एक दिन ऐसा भी आता है कि अत्याचार कई मामले में व्यक्तिगत होकर उसके जीवन पर भारी पड़ने लगता है। यदि लड़की शुरुआत में ही शर्मिंदगी को त्याग कर समाज के सामने खुलकर अपने ससुराल के इस दुर्गुण को बताना शुरू कर दे, तब उसके ऊपर अत्याचार होना रुक जाएगा।
यही हाल लगभग हर अत्याचारी और अत्याचार सहने वाले के बीच में होता है। जब तक अत्याचारी को यह मालूम रहता है कि अमुक व्यक्ति अत्याचार को सहने के बावजूद अपने शर्मिंदगी के कारण हमारा प्रतिरोध नहीं कर पाएगा, तब तक व्यक्ति शोषण करता रहता है।
अन्याय को सहना भी बहुत बड़ा पाप है और अन्याय के खिलाफ आवाज उठाना एक बहुत बड़ी वीरता है।
एक सच्ची घटना के घटनाक्रम का उल्लेख करते हुए मैं इस बात को रखना चाहता हूँ।
मित्रों, "समान कार्य, समान वेतन" के लिए संघर्ष कर रहे लोग न्यायालय की चौखट से लेकर सोशल मीडिया, अखबार और कर्मचारी संघ के माध्यम से अपने साथ हो रहे, अन्याय के बारे में लोगों के सामने अगर खुलकर अपनी बात नहीं रखेंगे, तब उनका शोषण अनंत काल तक होता रहेगा।
समय के साथ वेतन वृद्धि के अभाव में यदि कोई भी व्यक्ति आवाज नहीं उठाएगा, तब एक समय ऐसा आएगा कि उसे इसी विसंगति के योग्य मान लिया जाएगा, और उसके साथ कभी भी न्याय नहीं होगा।
मित्रों, उदाहरण के रूप में, हम जिस विभाग में कार्य कर रहे हैं, और पिछले 18 वर्षों से कार्य कर रहे हैं, उसमें इसी समस्या के शिकार 17 लोग, पिछले कई वर्षों से शर्मिंदगी के कारण समाज और सोशल मीडिया में एक शब्द भी नहीं बोलते। उन्हें यह शर्मिंदगी होती है कि किस प्रकार सभी के सामने भी अपने साथ हो रही नाइंसाफी की गाथा को व्यक्त करें, और अपने लिए न्याय की दुहाई दें।
कभी-कभी ऐसा होना स्वभाविक हो जाता है, कि परिकल्पनाएं धरती पर आकार नहीं ले पाती तब परिकल्पनाओं के साथ जुड़े हुए लोग, उन परिकल्पनाओं के शिकार हो जाते हैं।
इसी तरह काशी हिंदू विश्वविद्यालय में एक नेशनल फैसिलिटी ( NFTHM ) की स्थापना हो जाये जो आसपास के तीन चार राज्यों की ट्राइबल एरिया में पाई जाने वाली जन औषधीयों को खोज कर उनकी पहचान सुनिश्चित करके, उनकी वैज्ञानिक पुष्टि और विभिन्न रोगों में उपचार हेतु उनकी उपयोगिता को मूल्यांकन करें, ऐसी परिकल्पना को लेकर हिंदुस्तान की सबसे बड़ी शोध शाला भारत सरकार द्वारा काशी हिंदू विश्वविद्यालय को प्रदान की गई, इसमें 38 पद कार्य करने वाले कर्मचारियों को मिले,
इन 38 पदों के साथ विश्वविद्यालय की प्रतिबद्धता पहले ले ली गई थी, कि इन पदों पर रखे जा रहे कर्मचारी काशी हिंदू विश्वविद्यालय में अपने पूरे सेवाकाल तक इस केंद्र के कर्मचारियों के रूप में और विश्वविद्यालय के कर्मचारियों के रूप में कार्य करते रहेंगे,
ऐसी प्रतिबद्धता को होते हुए भी जब हम जैसे वैज्ञानिकों और अन्य कर्मचारियों को उचित वेतनमान नहीं प्रदान किया जा रहा था, तब सबसे पहले हमने आवाज़ लगाई, प्रतिरोध किया। हमनें काशी हिंदू विश्वविद्यालय के अधिकारियों के सामने अपने प्रस्ताव को पहुंचाया कि ऐसा होना भविष्य में बहुत बड़ी विसंगति को जन्म देगा।
साथ काम कर रहे हैं कर्मचारी उस समय से लेकर आज तक अपनी शर्मिंदगी के कारण कभी भी खुल कर इस समस्या को सोशल मीडिया पर स्थान नहीं दे पाए और ना ही किसी सामाजिक उपक्रम में इस बात को उठाने के लिए मनोबल बना पाए। उनकी सोच कि "कम वेतन पर ही अपना गुजारा कर लेंगे, परंतु अपने साथ हो रहे अत्याचार को किसी के सामने नहीं कहेंगे", आज इस अवस्था में उनके वेतनमान को पहुंचा दिया है कि असमानता स्तर 10/1 का हो चुका है। जिस व्यक्ति को ₹50000 मिलना चाहिए उसे ₹5000 में जीवन जीना पड़ रहा है। 18 वर्षों में वेतन वृद्धि होते होते इतनी अधिक हो गई है कि कोई विश्वास ही नहीं कर रहा है कि अन्य कर्मचारियों के समान "उनको समान पद, समान वेतन का अधिकार" मिलना चाहिए।
यह एक हास्यास्पद स्थिति है कि एक ही विश्वविद्यालय में एक ही कैडर में काम करने वाले कर्मचारी दूसरे कर्मचारियों को वेतन पूरा न लगने के कारण हेय दृष्टि से देखते हैं।
आयुर्वेद संकाय के एक प्रोफेसर ने जब मेरे प्रति ऐसी भावना को प्रदर्शित किया, तब मैंने उसका विरोध किया और उन्हें यह बताया कि मेरी डिग्री और मेरी एजुकेशन किसी भी मामले में उनसे कई गुना स्तरीय है, और वेतन विसंगति की स्थिति काशी हिंदू विश्वविद्यालय की व्यवस्था की बुराई है, ना कि मेरे लिए शर्मिंदगी का विषय। वैज्ञानिक का पद जिस दिन से सृजन हुआ है, उस दिन से वह एक प्रोफेसर ग्रेड में ही है और यूनिवर्सिटी ग्रांट कमीशन का नियम यही कहता है कि किसी भी रिसर्च अनुसंधान में दी गई वैज्ञानिक की पोस्ट उस व्यवस्था के लेक्चरर ग्रेड की होती है।
वैज्ञानिक का पद ऐसा है कि चाहे वह पूरी जिंदगी कार्य करता रहे, उसे वैज्ञानिक ही कहा जाता है, परंतु उसमें भी ग्रेड होती है और समय के साथ उनकी सीनियारिटी भी बनती रहती है।
यूनिवर्सिटी की व्यवस्था में वैज्ञानिक का पद न होने के कारण अथवा कम होने के कारण यह बुराई कभी-कभी इतनी बड़ी हो जाती है कि वैज्ञानिक को भी टेक्निकल स्टाफ मानकर उसके साथ अलग तरीके से व्यवहार किया जाता है।
अनेको प्रोफेसर, अपने को वैज्ञानिक लिख लेते हैं परंतु वे पदेन वैज्ञानिक नहीं होते और अनेकों वैज्ञानिक अपने को प्रोफेसर लिखने की स्थिति में होकर भी अपने को प्रोफेसर नहीं लिख पाते।
यह एक हास्यापद्य स्थिती है कि पहले दिन से वैज्ञानिक के पद पर कार्य करने वाला व्यक्ति 18 वर्षों बाद भी अपने को वैज्ञानिक ही लिखता है, और उसकी वरिष्ठता का ज्ञान कभी भी साथ काम करने वाले प्रोफेसर को नहीं होता।
मैंने 2014 में जब इस अन्याय के खिलाफ अपना प्रतिवेदन उच्चतम न्यायालय में पहुंचाने के लिए प्रयास किया, तब हमें यह बताया गया की सबसे पहले उच्च न्यायालय में आपको अपनी अपील करनी होगी। मैं अपनी अपील को 2014 में उच्च न्यायालय, प्रयागराज में सुनवाई के लिए प्रस्तुत कर दिया, जिसमें इस वेतन विसंगति और अपने साथ हो रहे दोयम दर्जे के व्यवहार का पूरा विवरण रहा। 2008 से 2014 के बीच में अनेकों पत्र प्रपत्र भी काशी हिंदू विश्वविद्यालय ने इस वेतन विसंगति को दूर करने के लिए हमारे दबाव में ही लगाए थे यूजीसी एचआरडी को लगाए थे, जिसकी प्रति भी इस अपील के साथ उच्च न्यायालय में जमा की गई।
सुनवाई के दौरान काशी हिंदू विश्वविद्यालय और यूजीसी / एचआरडी के वकीलों ने कई बार जजों के सामने इस बात को स्वीकार किया कि वह इस पक्ष में हैं कि "वैज्ञानिक" को पूरा वेतनमान दिया जाना चाहिए और पिछले 11 सालों में कम से कम 50 बार से ज्यादा हमने अपनी कोर्ट रूम में उपस्थिति लगाकर, इस बात की तस्दीक की, कि न्यायालय में जज साहब लोग इस बात को किस तरह से देखते हैं।
बार-बार कोर्ट रूम में जाने-आने का अनुभव हमें मिलता रहा और अनेको अत्याचारों के खिलाफ खड़े हुए लोगों का दर्शन भी होता रहा। समान वेतन के हक के लिए लड़ने वाले लोगों की एक बड़ी भीड़, जब कोर्ट रूम में हमें दिखाई पड़ती थी, तब हमें यह एहसास होता था कि वेतन विसंगति एक सत्य है और उसके खिलाफ हजारों लोग बिना किसी शर्मिंदगी के अपनी लड़ाई को लड़ रहे हैं। जैसे कि कैंसर और एड्स के अस्पताल में हजारों रोगी, एक ही रोग से संघर्ष करते हैं, और उनको किसी के सामने अपनी व्यथा को कहने में संकोच नहीं होता, उसी प्रकार वेतन विसंगति की बुराई को झेल रहे लोग न्यायालय में एक दूसरे का प्रोत्साहन करते हुए दिख जाते हैं।
कोर्ट रूम में आते जाते रहने के कारण हर अत्याचार को सहने वाला भीतर से मजबूत होता जाता है। इसका यह भी एक कारण होता है कि जज साहब लोगों की टिप्पणियां उनको किसी भी केस में सुनने को प्राप्त होती हैं, और उनको अपने लिए न्याय मिलता या करीब आता हुआ महसूस होता है।
मैंने अनेकों वर्षों तक अपने केस के सिलसिले में अनेकों को बुद्धिजीवी न्यायविदों की जीरह और उनकी समीक्षा को सामने से सुना है और यह महसूस किया है, कि यह मनमानी काशी हिंदू विश्वविद्यालय की बहुत दिनों तक चलने वाली नहीं है।
परंतु मेरे साथ काम कर रहे, शर्मिंदगी के शिकार, अन्य कर्मचारी ना तो कभी कोर्ट रूम गए और ना ही न्याय की बात को कभी सुनें। इसलिए उन्हें बस एक ही बात समझ में आती है कि चाहे विश्वविद्यालय हो अथवा न्यायालय उनको सिर्फ और सिर्फ हीनताबोध का सामना ही करना पड़ेगा। उनका मानना है कि जिस प्रकार "बलात्कार की शिकार स्त्री", कोर्ट और थाने में अपनी बात को बार-बार कहने को मजबूर होती है, उसी प्रकार "कम वेतनमान" पर काम करने वाले कर्मचारियों, को गलत निगाह से गलत मानते हुए अपराध बोध कराया जाता रहेगा और उन्हें कभी भी बराबरी का हक नहीं मिलेगा।
जिस प्रकार से अत्याचार को सहने वाली स्त्री कभी भी अपने अत्याचारी से अपने प्रति अच्छे व्यवहार की कल्पना नहीं कर सकती, उसी प्रकार काशी हिंदू विश्वविद्यालय अथवा किसी भी नियोक्ता के द्वारा वेतन विसंगति का सुधार, अकल्पनीय है और शर्मिंदगी के अहसास से अपने को मार रहे कर्मचारी अपने लिए कभी भी सही रास्ता नहीं प्राप्त कर पाएंगे।
यदि मैं शर्मिंदगी के कारण आने वाली बुराई को समझाने में असफल भी रहुँ, तो भी आप अपनी समीक्षा से मुझे और अनेकों शर्मिंले स्वभाव के लोगों के लिए सबलता प्रदान कीजियेगा।
आप के द्वारा मार्गदर्शन सामान्य लोगों के लिए सीख बनेगी।
अभिप्रेरणा हेतु
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डॉ. सत्य प्रकाश