मन भेदों को टाला जाए
(कविता)
मनु मय त्वष्टा शिल्पी दैवज्ञ,
को एक मंच पर लाया जाये।
एका हममे नहीं हो सकती,
ऐसा भ्रम क्यों पाला जाये।।
छोड़ो अब बहुदेव का अर्चन,
सृष्टि सृजक को ढाला जाये।
अपने कुल के बच्चों में भी,
अपनी संस्कृति,पाला जाये।।
हालत अपने कुल की ऐसी,
आओ इसे,खंघाला जाये।
अपने प्रिय,जो विलग हुए हैं,
प्रेम से उन्हें दुलारा जाये ।।
सुख के साधन दिये विश्व को,
शोहरत वही उछाला जाये।
छोड़ो सब,अब अंध भक्ति को,
अपने देव को,संभाला जाये।।
अपनी छवि को और सुधारो,
नैतिक सीसे में ढाला जाये।
आओ सभी एक हो मिलकर,
कटुता को अब टाला जाये ।।
एका में हो जो भी बाधक,
उसको जाति निकाला जाये ।
पाँचाल एकता के नारे को,
आओ फिर से,उछाला जाये।।
दूर सदा होवे विध्वंसक ,
उनके सिर वह भाला जाये।।
अपने कुल की प्रगति दीप में,
अनुदिन फिर से उजाला आये।।
सर्जक: डॉक्टर डी आर विश्वकर्मा
सुन्दरपुर, वाराणसी-05
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