जाति छुपाए घूम रहे हैं

जाति छुपाए घूम रहे हैं

जाति छुपाए घूम रहे हैं,
गुप्त रखें पहचान की ।
ऐसे लोग ही बात करेंगे, 
विश्वकर्मा उत्थान की ।।

अपने को विश्वकर्मा कहते,
लाज जिन्हें है आती।
ऐसे लोग तो कुल घातक है,
सचमुच हैं संघाती।।
क्यों पीतो हो भैया मेरे,
घूँट सदा अपमान की।…….जाति छुपाए 

दम है तो अपनी क़ौम का,
टायटिल खूब लगाओ।
अपनी जाति की गरिमा को,
अनुदिन खूब बढ़ाओ।।
क्यों बेकार की आशा रखते,
दूजे जाति के मान की।…….जाति छुपाये 

अपनों से जब मिलो,सदा,
एका को बतलाओ।
अपने कुल के लोगों से,
आत्मीय प्यार निभाओ।।
बदले में तब आशा करना,
ख़ुद अपने सम्मान की।…….जाति छुपाये 

ताक़त मित्रो लुका छिपी से,
दिन प्रतिदिन है घटती।
मिश्र उपाध्याय पाठक से,
अपनी श्री नही बढ़ती।।
छोड़ो मित्रो सब ढकोसला,
दूजे वर्ण खानदान की।…….जाति छुपाये 

बढ़ई और लोहारो में,हमको 
जिसने है जब बाँटा।
उनको तो बस अपने कुल में,
आग लगाने आता।।
ऐसे विद्रोही को त्यागें,
जो बनते मुल्तान की।…….जाति छुपाये 

मंचों पर विश्वकर्मा बनते,
करते हैं ऊँची बातें।
शर्मा का जब मतलब पूछें,
कैसे कुछ शरमाते।।
घर की प्रेम एकता भूले,
बात करें जहान की।…….जाति छुपाये 

अपना कुल पहले से ही,
वैदिक बौद्धिक प्यारा।
अपने कुल ने ही ईज़ाद की,
सुख सामग्री सारा।।
दुनिया वाले जान रहे हैं,
अपने कुल के शान की।…….जाति छुपाये घूम रहे हैं,गुप्त रखे पहचान की।।
रचनाकार: डॉ डी आर विश्वकर्मा
              सुन्दरपुर वाराणसी-05

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