योग से संभव है;काया कल्प : डॉक्टर डी आर विश्वकर्मा

योग से संभव है;काया कल्प : डॉक्टर डी आर विश्वकर्मा 
आज सर्वत्र आतंक, भय, चिंता, स्पर्धा और उत्तेजना का वातावरण विद्यमान है। व्यक्ति अनंत सुखों का स्वामी होकर भी दुख एवम तनाव के महासागर में डूबता जा रहा है, इससे छुटकारा दिलाने में योग का महत्त्व काफी बढ़ गया है। हमारे मन में अनंत शक्तियां विद्यमान हैं और इसे योग द्वारा जागृत कर हम असीम आनंद, शक्ति एवं शांति की प्राप्ति कर सकते हैं।
        चित्त वृत्ति का निरोध ही योग है।विज्ञान की भाषा में यह आध्यात्मिक अनुशासन एवं अत्यंत सूक्ष्म विज्ञान पर आधारित ऐसा ज्ञान है, जो मन और शरीर के बीच सामंजस्य स्थापित करता है।
        श्रुति परंपरा के अनुसार भारत के आध्यात्मिक विकास और मानवीय चेतना को आकार देने का काम सबसे पहले शिव ने किया, आज से 15000 वर्ष पहले मानव मन में योग का बीजारोपण किया और उन्होंने मानवता को आत्म रूपांतरण की 112 विधियां भेंट की।इसीलिए यौगिक संस्कृति में शिव को आदि योगी माना जाता है।
        संस्कृत में योग का मतलब जोड़ने से लिया जाता है, परंतु ब्रह्म संप्राप्ति के साधकों के लिए योग का अर्थ है "एकीकरण" किस तरह का एकीकरण जैसे चीनी का पानी में धुलकर एक हो जाती है। उसी प्रकार आत्मा का परमात्मा के साथ मिलकर एकाकार हो जाना है। वास्तव में देखें तो व्यक्तिगत चेतना को, सार्वभौमिक चेतना के साथ एकाकार कर देना ही योग है।
Yoga is the journey of the self,through the self and to the self,,,,,,,Bhagvat Geeta
पतंजलि योग सूत्र में पतंजलि ने "योगः चित्त वृत्ति निरोधः"
यानि चित्त की वृत्तियों का निरोध ही योग है। एक और परिभाषा में "समत्तवम योग उच्चते"कहते है। यही एक और परिभाषा में "योगः कर्मशु कौशलम"कहा गया है।
व्यक्ति की शारीरिक क्षमता, उसके मन व भावनाओं तथा ऊर्जा के स्तर के अनुरूप योग को चार भागों में विभक्त कर सकते हैं।

कर्म योग -  इसमें शरीर का प्रयोग होता है।
ज्ञान योग -  इसमें मन का प्रयोग होता है।
भक्ति योग -  इसमें भावना का प्रयोग किया जाता है।
क्रिया योग -  इसमें उर्जा का प्रयोग होता है।
    वैसे इसके अलावा पतंजलि योग,कुंडलिनी योग,  हठ योग, ध्यान योग,मंत्र योग, लय योग, राज योग, जैन योग और बौद्ध योगों की चर्चा की गई है।
    आइए!पतंजलि के अष्टांग योग का विवेचन करें।
 1  यम  यम माने निग्रह करना। दूसरों से व्यवहार करते समय जिन नैतिक मूल्यों का पालन करना करना होता है, उसे यम कहते हैं। यह पांच होता है।
 सत्य   वाणी, कर्म विचारों में सत्यता, परम सत्य में स्थिति रहना।
 अहिंसा  वाणी कर्म विचारों में अहिंसा, किसी को हानि न पहुंचना।
 अस्तेय-  ईमानदार होना, जो आप की अपनी चीज न हो उसकी चोरी न करना। इसमें दूसरों के विचारों की भी चोरी शामिल है।
 अपरिग्रह - जो अपनी जरूरत की न हो,ऐसी किसी चीज,भावना,संवेदना का संग्रह न करना।
 ब्रह्मचर्य -  ब्रह्म के साथ एकरूपता, यदि आप विवाहित हैं तो अपने जीवन साथी के साथ पूरी तरह ईमानदार रहना।
 2  नियम -  नियम वह अनुशासन है,जिसे स्वम के लिए पालन करना होता है।इसे व्यक्तिगत नैतिकता भी कहते है।
 शौच   बाह्य एवम आंतरिक शुद्धता , शुचिता को शौच की संज्ञा दी गई है।
 संतोष   अपने किए प्रयत्न से जो फल मिले उससे प्रसन्न रहना,जीवन में घटने वाली हर घटना को चुनाव रहित होकर स्वीकार करना ।
 तप   कर्तव्य व धर्म के लिए जो कष्ट सहन करते हैं,उसे तप कहते ,तप भी तीन प्रकार का होता है,वाचिक,कायिक तथा मानसिक तप।
 स्वाध्याय   स्वम को जानना,साधना के लिए दूसरे पूरक ग्रंथों का अध्ययन करना स्वाध्याय कहलाता है।
 ईश्वर प्राणिधान   श्रद्धापूर्वक अपने आप को ईश्वर की इच्छा के आगे पूरी तरह समर्पित करना ईश्वर प्राणिधान कहलाता है।
 3  आसान  जिससे शरीर व मन स्थिर होकर सुखदायी हो जाए,वही आसान कहलाता है।हमारे पौराणिक आख्यानों में 600 प्रकार के आसनों का जिक्र आता है।हम आसान से शक्ति कमाते हैं,जबकि व्यायाम से शक्ति घटाते हैं।
 "स्थिरम सुखम आसनम"
 4  प्राणायाम   वैश्विक जीवनी शक्ति को श्वास प्रश्वास क्रिया द्वारा सुव्यवस्थित एवं नियमित करना,जिससे प्राण शक्ति का विकास हो,प्राणायाम कहलाता है।
 5   प्रत्याहार   इंद्रिय निग्रह को प्रत्याहार कहते है।05 कर्मेंद्रीय व 05 ज्ञानेद्रियां ,जैसे शब्द,रूप,रस,गंध,स्पर्श को नियंत्रित करना,प्रत्याहार कहलाता है।
 6   धारणा   किसी वस्तु,व्यक्ति,चीज को एक विंदु पर धारण करना,अथवा अपने सांस को केंद्रित करना धारणा
 कहलाता है।
 7   ध्यान   ध्यान द्वारा हम अपने आप को श्रेष्ठता व आत्म बोध की ओर ले जा सकते है। परा शक्ति का आत्म सत्ता में अवतरण ही ध्यान का मुख्य प्रयोजन है,इससे नकारात्मक भाव कम होता है, व विधायक भाव बढ़ता है।
 8   समाधि   मन की चंचलता मस्तिष्क की दिव्य क्षमताओं को निरर्थक कर देती है।प्रवीणता तो एकाग्रता से ही आती है।यदि कोई साधक 03 मिनट तक मन को एकाग्र कर ले तो वह शून्यावस्था में पहुंच जाता है,इससे शरीर और मन को काफी विश्राम मिलता है।सुमिरन से समाधि फलती है,और तभी महाचेतना जागती है।
 पतंजलि कहते है की विषयों से मुक्ति प्रारंभिक वैराग्य है।परम वैराग्य तो तभी आता है,जब सभी इच्छाएं पूरी तरह से मिट जाएं।वही आलोकित दिव्य चेतना ही ईश्वर है,जिसे दुख,कर्म,कामना प्रभावित नहीं करती।पतंजलि कहते है की अन्य आत्माओं में ज्ञान बीज रूप में रहता है,परंतु जो ईश्वर हो गया वह सर्वज्ञ हो जाता है।
 सारांश रूप में यदि हम योग को ठीक से समझ ले,और इसे जीवन में धारण करे,जैसा उपर वर्णित किया गया है,तो निश्चित मानिए,आप में दैवी गुणों का प्रदुर्भाव अवश्य होगा।यह लेखक का पूर्ण विश्वास है।
 अंत में,आपका शरीर वृद्ध हो,युवा हो,रोगी हो,दुर्बल हो किसी भी हालत में आप योगासन कर सकते हैं।निरंतर अभ्यास से आप जल्द ही शरीर पर नियंत्रण पा सकते हैं,और अपने को स्वास्थ्य पूर्ण बना सकते हैं।

लेखक:पूर्व जिला विकास अधिकारी; कई राज्य स्तरीय पुरस्कारों से विभूषित वरिष्ठ साहित्यकार, मोटिवेशनल स्पीकर, वरिष्ठ प्रशिक्षक,ऑल इंडिया रेडियो वाराणसी का नियमित वार्ताकार,कई सामाजिक संस्थाओं का पदाधिकारी,कई पुस्तकों के प्रणयन कर्ता,शिक्षाविद् जिसके नाम से काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के शिक्षा संकाय के शोध छात्रों को डॉ डी आर विश्वकर्मा बेस्ट पेपर अवार्ड भी दिया जाता है।

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