पिछले माह की सच्ची घटना

पिछले माह की सच्ची घटना

(जब किसी विन्दू या घटना को अपने स्वभाव के अनुसार समझते और व्याख्या करते है तो परिणाम भी वैसा ही प्राप्त होता है)
एक बार मैं भगवान श्री विश्वकर्मा के मंदिर में बैठा-बैठा सोच रहा था कि जिसने इस मंदिर का निर्माण किया होगा उनकी दृष्टिकोण कैसी रही होगी समाज के भावी पीढियो के लिए। 
क्या जरूरत थी मंदिर निर्माण की?
क्या आज के नौजवान अपने बुजुर्गो के त्याग और समर्पण को समझ पा रहे हैं? या उनके स्वप्न को पूरा करने में समर्थ है?
आदि...आदि.
मैं सोच ही रहा था कि, अचानक किसी ने मंदिर में प्रवेश किया और मुझसे बोलना प्रारंभ किया।
स्वामी जी, मंदिर में बैठने पर क्या मिलता है?
मैंने बोला, प्रासाद और दिव्य शांति..
वह तपाक से उत्तर दिया,
नही, नही..महाराज।
मंदिर मे बैठने से शरीर आलसी और कामचोर हो जाता है, जो कुछ नही करता वह मंदिर में बैठता है।
इतना कहते हुए वह बाहर चला गया।
मेरा ध्यान मंदिर की व्यवस्था को सुदृढ करने वाले विचारो से हटकर उस व्यक्ति के बातो पर चला गया..
प्रभु की मूर्ति को देखकर मानो स्वयं से पूछने लगा कि.. क्या मैं सच में आलसी हूॅ....
तभी दूसरा व्यक्ति मंदिर में प्रवेश किया।
वह तुरंत बैठ गया और गर्मी के तपिश को शांत करने लगा..
कुछ देर बाद जैसे ही मैने प्रसाद देना चाहा, कि उसने हाथ पीछे खीच लिया और कहने लगा कि इसकी कोई आवश्यकता नही..
प्रसाद के बदले पैसा..
आजकल तो मंदिर और पुजारी अंधकार और पाखंड का अड्डा बन गये है, बुदबुदाते हुए वह भी तीव्र गति से बाहर चला गया।
मै स्तब्ध नजरों से उसे देखता रह गया..
कुछ समझ पाता कि तीसरे व्यक्ति ने प्रवेश किया।
मैंने प्रसाद देने का कोई प्रयास नही किया उसने साष्टांग प्रणाम करते हुए मंदिर की परिक्रमा किया और शांति प्राप्ति हेतु आसन लगाकर बैठ गया।
10 मिनट के बाद वह कैसे गायब हो गया मुझे कुछ आभास ही नही हुआ। 
मैने सोचा यह क्या हुआ?
आगे जाकर देखता हूॅ तो
मंदिर के गर्भ गृह मे भगवान के श्रृंगार के लिए महीने भर का सामान पड़ा है।
कहां से आ गया... सामान।
समझ में नही आया।
मैं तेजी से मंदिर के चौखट पर आया दूर -दूर तक देखने पर कोई दिखाई नही दिया।
अंदर से मैं हिल गया..
चमत्कार या भगवद कृपा..
मन में सकारात्मक ऊर्जा का संचार  हो उठा, भगवान के छवि को एकटक निहारने लगा। हृदय के पवित्र भावों से नेत्राश्रु बह निकले कि, काश! मैंने प्रभु को आज प्रसाद क्यों नही दिया।
मन में प्रभु का भाव स्मरण हो आया और एक कोने से प्रभु की सेवा भाव की कमी भी खलने लगी।
 तभी चौथे व्यक्ति ने प्रवेश करते ही प्रभु का जोर से जयकारा लगाया, उसने अपने हाथों से घंटे की गड़गड़ाहट की जिसके संपर्क से मंदिर प्रांगण मे सर्वत्र मधुर ध्वनियां कर्तन गान करने लगी।
भक्तिमय वातावरण की लहरे उठने लगी मैं भी सबकुछ भूलकर भक्तिरस  का आनंद लेने लगा।
लगभग आधा घंटे के बाद वह व्यक्ति भगवान के सामने बैठकर रोने लगा..और कहने लगा....
भगवन, आप के सत्य निष्ठा और निश्चल भक्ति कृपा से इस मंदिर का अस्तित्व जीवित है।
मैंने तो जीवन भर पाप कर्म किए और कभी किसी का हित नही किया। जिससे मन कभी शांत नही होता..
लेकिन जब इस मंदिर में जयकारा लगाता हूॅ तो लगता है कि, वाणी की सार्थकता और शुद्धता दोनो सिद्ध हो रही है और मन निर्मल हो रहा है ।
हे! गुरूकुल के चरित्र को जीवंत करने वाले और मानव समाज के पतितों   का कल्याण करने वाले.. प्रभु। 
आपको शत शत नमन है।
 मैं हृृदय से उन्हें धन्यवाद करता हूॅ, जिसने इस मंदिर के निर्माण के लिए अपना सब कुछ न्यौछावर कर दिया और आपकी सत्ता को स्थापित किया।
यदि मंदिर न होती, तो पुजारी नही होते.. और जब पुजारी नही होते ..तो प्रभु भक्त कहाॅ से आते,
जो हम जैसे पापियों की मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करके सदमार्ग पर ले जाते?
महाराज जी,
 मैं आपसे सच कहता हूॅ कि,
जैसे ही मेरा पैर मंदिर के बाहर पड़ता है, अधर्म की ज्वालाएं फूट पड़ती है, पाप-पूण्य की रेखायें मिट जाती हैं और सिर्फ ही सिर्फ स्वार्थ की पराकाष्ठा  ही नजर आती है।
मैं क्या करुँ, कहाँ जाऊँ 
 शरणागत हो प्रभु ..शरणागत।
🙏🏻जय श्री विश्वकर्मा प्रभु🙏🏻
श्री राजेश्वराचार्य जी महाराज। 
(पीठाधीश्वर एवं कथावाचक)
विश्वकर्मा संस्कृति पीठ,काशी।
वाराणसी,उत्तर प्रदेश। 
संपर्क सूत्र-8840155008

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